
आज हम आपको एक ऐसे व्यक्ति की कहानी सुनाने जा रहे हैं, जो कभी ठेकेदारी के क्षेत्र में सक्रिय थे, लेकिन अब उन्होंने उस पेशे को अलविदा कहकर प्राकृतिक खेती को अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लिया है। यह शख्स आज खेती के जरिए शुद्ध और स्वास्थ्यवर्धक सब्जियां उगाते हैं और खास बात यह है कि वे अपनी फसलों में किसी भी तरह के रासायनिक पदार्थों का प्रयोग नहीं करते। इस कहानी का नायक हैं संदीप सिंह, जो उत्तर प्रदेश के कौशांबी जिले के शाहपुर गांव के रहने वाले हैं। इनकी यह यात्रा न सिर्फ प्रेरणादायक है, बल्कि यह भी दिखाती है कि सही दिशा में उठाया गया एक कदम समाज के लिए कितना लाभकारी हो सकता है।
ठेकेदारी से कमाई का सुनहरा दौर
संदीप सिंह ने अपने जीवन के शुरुआती 20 साल ठेकेदारी के पेशे में बिताए। इस दौरान उन्होंने मेहनत और लगन से खूब मुनाफा कमाया। ठेकेदारी का काम उनके लिए केवल आजीविका का साधन ही नहीं था, बल्कि यह उनकी पहचान भी बन गया था। गांव और आसपास के इलाकों में लोग उन्हें एक सफल ठेकेदार के रूप में जानते थे। लेकिन जैसा कि हर इंसान के जीवन में कुछ न कुछ बदलाव आता है, संदीप के साथ भी ऐसा ही हुआ। एक दिन उन्हें रासायनिक खेती के नुकसानों के बारे में पता चला, और यह जानकारी उनके लिए एक टर्निंग पॉइंट साबित हुई।
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उन्होंने देखा कि उनके आसपास के किसान फसलों को बढ़ाने के लिए तरह-तरह के रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल कर रहे थे। शुरुआत में यह सब सामान्य लगा, लेकिन जब उन्होंने इसके दुष्परिणामों को गहराई से समझा, तो उनके मन में एक सवाल उठा—क्या ऐसी सब्जियां जो केमिकल्स से भरी हों, वाकई लोगों के लिए फायदेमंद हैं? इस सवाल ने उन्हें इतना परेशान किया कि उन्होंने ठेकेदारी छोड़ने और प्राकृतिक खेती शुरू करने का फैसला कर लिया। उनका लक्ष्य था कि वे लोगों तक शुद्ध और स्वस्थ भोजन पहुंचाएं।
रासायनिक खेती के खतरों का एहसास
संदीप बताते हैं कि जब उन्हें रासायनिक खाद और कीटनाशकों के नुकसानों का पता चला, तो उनके लिए यह एक आंखें खोल देने वाला अनुभव था। उनके गांव में ज्यादातर किसान खेती को आसान और उत्पादन को बढ़ाने के लिए इन रसायनों पर निर्भर थे। लेकिन संदीप ने देखा कि इनके इस्तेमाल से मिट्टी की उर्वरता धीरे-धीरे खत्म हो रही थी। न सिर्फ मिट्टी, बल्कि इन रसायनों का असर फसलों के जरिए इंसानों और जानवरों के स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा था। कैंसर, त्वचा रोग, और दूसरी गंभीर बीमारियों के मामले बढ़ते जा रहे थे, और इसका एक बड़ा कारण रासायनिक खेती ही थी।
संदीप ने यह भी महसूस किया कि ऐसी सब्जियां खाने से लोगों का स्वास्थ्य तो खराब हो ही रहा था, साथ ही पर्यावरण को भी नुकसान पहुंच रहा था। पानी के स्रोत दूषित हो रहे थे, और कीट-पतंगों की प्राकृतिक प्रजातियां खत्म होने की कगार पर थीं। इन सब बातों ने उन्हें प्राकृतिक खेती की ओर मोड़ दिया। उनका मानना था कि अगर वे अपने स्तर पर भी बदलाव ला सकते हैं, तो यह समाज के लिए एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण योगदान होगा।
प्राकृतिक खेती की ओर पहला कदम
प्राकृतिक खेती की राह आसान नहीं थी। संदीप को इस क्षेत्र में कोई अनुभव नहीं था, लेकिन उनकी इच्छाशक्ति और सीखने की ललक ने उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। उन्होंने इस नई शुरुआत के लिए दीनदयाल कृषि विज्ञान केंद्र, सतना के विशेषज्ञों से संपर्क किया। वहां के वैज्ञानिकों ने उन्हें प्राकृतिक खेती के सिद्धांत, तकनीकें और फायदे समझाए। संदीप ने घंटों वैज्ञानिकों के साथ चर्चा की, किताबें पढ़ीं, और प्राकृतिक खेती के गुर सीखे।
उन्होंने जाना कि प्राकृतिक खेती में रासायनिक खाद की जगह जैविक खाद, जैसे गोबर की खाद, जीवामृत, और वर्मी कम्पोस्ट का इस्तेमाल किया जाता है। कीटनाशकों की जगह प्राकृतिक तरीकों से कीटों को नियंत्रित किया जाता है। यह सब सुनने में जितना आसान लगता है, उतना ही मुश्किल इसे लागू करना था। लेकिन संदीप ने हार नहीं मानी और धीरे-धीरे इस कला में महारत हासिल कर ली।
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खेती का दायरा और मेहनत का फल
संदीप आज 16 एकड़ जमीन पर प्राकृतिक खेती करते हैं। उनकी मेहनत और लगन का नतीजा यह है कि वे कई तरह की फसलों को उगा रहे हैं। इनमें से 9.5 एकड़ जमीन पर वे गेहूं की खेती करते हैं, 5 एकड़ पर सरसों, और 2.5 एकड़ पर आलू की खेती करते हैं। ये सारी फसलें पूरी तरह प्राकृतिक तरीके से तैयार की जाती हैं। खास तौर पर आलू की खेती में उनकी विशेष रुचि है, क्योंकि यह एक ऐसी फसल है जो आम लोगों के भोजन का अहम हिस्सा है।
आलू की फसल तैयार होने में करीब 130 दिन लगते हैं। संदीप बताते हैं कि प्रति एकड़ उनकी जमीन से लगभग 110 क्विंटल आलू का उत्पादन होता है। यह उत्पादन भले ही रासायनिक खेती के मुकाबले थोड़ा कम हो, लेकिन इसकी गुणवत्ता और शुद्धता इसे खास बनाती है। उनकी सब्जियां बाजार में अच्छी कीमत पर बिकती हैं, क्योंकि लोग अब धीरे-धीरे प्राकृतिक उत्पादों की अहमियत समझने लगे हैं।
प्राकृतिक खाद और कीट नियंत्रण के तरीके
संदीप अपनी फसलों को स्वस्थ रखने के लिए प्राकृतिक खाद और उपायों का सहारा लेते हैं। वे बीजों को बोने से पहले बिजामृत से उपचारित करते हैं, जो एक प्राकृतिक घोल है और बीजों को मजबूती देता है। इसके बाद फसलों की बढ़ोतरी के लिए वे जीवामृत का इस्तेमाल करते हैं। जीवामृत बनाने के लिए वे 10 लीटर घोल को 200 लीटर पानी में मिलाते हैं और इसे आलू की फसल पर दो बार छिड़काव करते हैं। इससे न सिर्फ फसल को पोषण मिलता है, बल्कि यह रोगों से भी बचाव करता है।
आलू की फसल को पछेती झुलसा रोग (लेट ब्लाइट) से बचाने के लिए संदीप एक अनोखा तरीका अपनाते हैं। वे 100 लीटर पानी में खट्टी छाछ मिलाकर इसका छिड़काव करते हैं। यह प्राकृतिक मिश्रण फसल को इस रोग से मुक्त रखता है। संदीप का कहना है कि ये तरीके न सिर्फ प्रभावी हैं, बल्कि सस्ते और पर्यावरण के लिए सुरक्षित भी हैं।
समाज के लिए प्रेरणा
संदीप सिंह की यह कहानी सिर्फ एक किसान की सफलता की कहानी नहीं है, बल्कि यह एक संदेश भी है। वे बताते हैं कि अगर हर किसान प्राकृतिक खेती को अपनाए, तो न सिर्फ हमारी मिट्टी और पर्यावरण बचेगा, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी स्वस्थ भोजन मिलेगा। उनकी मेहनत और जज्बे ने उनके गांव के कई किसानों को प्रेरित किया है। आज उनके आसपास के लोग भी धीरे-धीरे रासायनिक खेती छोड़कर प्राकृतिक तरीकों की ओर बढ़ रहे हैं।
संदीप का मानना है कि खेती सिर्फ पेट भरने का जरिया नहीं, बल्कि यह एक जिम्मेदारी है। वे कहते हैं, “अगर हम अपनी जमीन को जहर से भर देंगे, तो आने वाली पीढ़ियां हमें कभी माफ नहीं करेंगी।” उनकी यह सोच और काम करने का तरीका हमें यह सिखाता है कि बदलाव की शुरुआत अपने स्तर से ही करनी पड़ती है।
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निष्कर्ष
संदीप सिंह जैसे लोग आज के समय में एक मिसाल हैं। ठेकेदारी के सुनहरे करियर को छोड़कर प्राकृतिक खेती को अपनाना कोई आसान फैसला नहीं था, लेकिन उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति ने यह साबित कर दिया कि सही मायनों में सफलता वही है जो समाज के हित में हो। उनकी मेहनत से न सिर्फ उनकी जिंदगी बदली, बल्कि उनके गांव और आसपास के लोगों के लिए भी एक नई राह खुली। प्राकृतिक खेती के जरिए वे न सिर्फ शुद्ध सब्जियां उगा रहे हैं, बल्कि पर्यावरण और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता भी फैला रहे हैं। उनकी यह कहानी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि हम अपने स्तर पर क्या बदलाव ला सकते हैं।